“मैं जानता था…

WWI Trench exhibit


दो बचपन के दोस्तों ने एक साथ एक ही स्कूल में पढ़ाई की, एक ही कॉलेज गए और सेना में भी एक ही साथ भर्ती हुए. युद्ध छिड़ने पर दोनों की तैनाती भी एक ही यूनिट में हुई. एक रात उनकी यूनिट चारों और से हो रही गोलीबारी में घिर गई और उनके बहुत से साथी शहीद हो गए.

घना अँधेरा छाया था और हर तरफ से गोलियां चलने की आवाज़ आ रही थी. किसी के बोलने की दर्दभरी आवाज़ आई – “सुनील, यहाँ आओ और मेरी मदद करो”. सुनील पहचान गया कि यह उसके बचपन के दोस्त हरीश की आवाज़ थी. उसने कैप्टन से उसके पास जाने की इजाज़त मांगी.

“नहीं!” – कैप्टन ने कहा – “मैं तुम्हें वहां जाने की इजाज़त नहीं दे सकता! हमारे इतने जवान मारे जा चुके हैं और मैं किसी और को खोना नहीं चाहता! तुम हरीश को नहीं बचा सकते, वह बहुत ज़ख्मी लगता है”.

सुनील चुपचाप बैठ गया. हरीश की आवाज़ फिर से आई – “सुनील, यहाँ आओ, मेरी मदद करो”.

सुनील चुपचाप बैठा रहा क्योंकि कैप्टन उसे जाने को मना कर चुका था. हरीश की दर्द भरी पुकार बार-बार आती रही. अंततः सुनील खुद को नहीं रोक सका. उसने कैप्टन से कहा – “कैप्टन, हरीश मेरे बचपन का दोस्त है. मैं उसकी मदद ज़रूर करूँगा”. कैप्टन ने अनिच्छापूर्वक उसे जाने दिया.

सुनील अँधेरे में खंदकों से गुज़रता हुआ हरीश तक पहुंचा और उसे अपनी खंदक में ले आया. कैप्टन ने जब यह देखा कि हरीश मर चुका है तो उसे सुनील पर बहुत गुस्सा आया और वह उसपर चिल्लाया – “मैंने तुम्हें वहां जाने को मना किया था ना! वो मर चुका था और उसके साथ तुम भी मारे जाते और यहाँ कोई नहीं बचता! तुमने कितनी बड़ी गलती की!”

सुनील ने कैप्टन से कहा – “नहीं कैप्टन, मैंने सही किया. मैं जब हरीश के पास पहुंचा तब वह जीवित था और मुझे देखकर उसने बस इतना कहा ‘सुनील, मैं जानता था तुम ज़रूर आओगे'”.

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ऐसी मित्रता बहुत कम ही मिलती है और इसकी कद्र करनी चाहिए. हमसे हमेशा कहा जाता है : “अपने सपनों को पूरा करो”. लेकिन हम अपने सपनों को दूसरों की कीमत पर पूरा नहीं कर सकते. जो ऐसा करते हैं वे विवेकहीन हैं. हमें हमेशा ही अपने परिवार, मित्रों, और हमारे हितैषियों के लिए त्याग करना पड़ता है. यही मनुष्यत्व है.

(A moving motivational / inspiring story on friendship – in Hindi)

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