लगभग सौ साल पहले एक व्यक्ति ने सुबह समाचार पत्र में स्वयं की मृत्यु का समाचार छपा देखा और वह स्तब्ध रह गया. वास्तव में समाचार पत्र से बहुत बड़ी गलती हो गई थी और गलत व्यक्ति की मृत्यु का समाचार छप गया. उस व्यक्ति ने समाचार पत्र में पढ़ा – “डायनामाईट किंग अल्फ्रेड नोबेल की मृत्यु… वह मौत का सौदागर था”.
अल्फ्रेड नोबेल ने जब डायनामाईट की खोज की थी तब उन्हें पता नहीं था कि खदानों और निर्माणकार्य में उपयोग के लिए खोजी गई विध्वंसक शक्ति का उपयोग युद्घ और हिंसक प्रयोजनों में होने लगेगा. अपनी मृत्यु का समाचार पढ़कर नोबेल के मन में पहला विचार यही आया – “क्या मैं जीवित हूँ? ‘मौत का सौदागर ‘अल्फ्रेड नोबेल’… क्या दुनिया मेरी मृत्यु के बाद मुझे यही कहकर याद रखेगी?”
उस दिन के बाद से नोबेल ने अपने सभी काम छोड़कर विश्व-शांति के प्रसार के लिए प्रयत्न आरम्भ कर दिए.
स्वयं को अल्फ्रेड नोबेल के स्थान पर रखकर देखें और सोचें:
* आपकी धरोहर क्या है?
* आप कैसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाना पसंद करेंगे?
* क्या लोग आपके बारे में अच्छी बातें करेंगे?
* क्या लोग आपको मृत्यु के बाद भी प्रेम और आदर देंगे?
* क्या लोगों को आपकी कमी खलेगी?
चित्र साभार : विकिपीडिया
(A motivational / inspiring anecdote of Alfred Noble – in Hindi)
नोबल साहेब चले गये.. एक खट्टी मीठी चिज दे गये…
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नोबल साहेब चले गये.. एक खट्टी मीठी चिज दे गये…
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क्या कहें..आपने तो ऐसी सोच में डाल दिया कि अँधेरा ही अँधेरा नजर आ रहा है.
हे प्रभु, कुछ लम्बा समय दे देना. परसों से इस काम में जुट जाता हूँ. कल तो ब्लॉग पोस्ट लगानी है तो जरा व्यस्त रहूँगा.
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क्या कहें..आपने तो ऐसी सोच में डाल दिया कि अँधेरा ही अँधेरा नजर आ रहा है.
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नोबेल जैसा काम करना तो मुश्किल है.
जीवन का एक कटु सत्य, आठ अरब लोगों को दुनिया याद नहीं रख सकती चाहे कुछ भी कर लो. इसका मतलब यह नहीं कि आप कुछ अच्छा करें ही नहीं, वरन जीवन बिना ऐसी आशाओं की जियें तो ज्यादा सुखद हैं.
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अगर याद न रखे जाएं तो बेहतर है। याद रखा जाए यह सोच ही एक तरह की मानसिक बीमारी है। भारतीय मनीषीयों ने किसी एक व्यक्ति के बजाय एक विचार के साथ कई पीढि़यां जी। इसी कारण वेद अपौरुषेय हो गए। व्यक्ति से अधिक विचार महत्वपूर्ण होता है। चाटुकारिता से व्यक्ति तक सीमित करती है।
अगर कोई एक ऋषि यह सोचता कि सिर्फ मैं ही वेद लिखूं और अमर बन जाऊं, तो कभी वेद, वेदांग, पुराण और उपांग नहीं बन पाते।
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धन्यवाद सिद्धार्थ जी! आपका दृष्टिकोण हमेशा अद्भुत और यूनीक होता है. आपके कमेंट्स विचारोत्तेजक हैं.
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अगर याद न रखे जाएं तो बेहतर है। याद रखा जाए यह सोच ही एक तरह की मानसिक बीमारी है। भारतीय मनीषीयों ने किसी एक व्यक्ति के बजाय एक विचार के साथ कई पीढि़यां जी। इसी कारण वेद अपौरुषेय हो गए। व्यक्ति से अधिक विचार महत्वपूर्ण होता है। चाटुकारिता से व्यक्ति तक सीमित करती है।
अगर कोई एक ऋषि यह सोचता कि सिर्फ मैं ही वेद लिखूं और अमर बन जाऊं, तो कभी वेद, वेदांग, पुराण और उपांग नहीं बन पाते।
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सिद्धार्थ जी का कमेंट उपयोगी है, और आपका आलेख महत्वपूर्ण ।
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अच्छा लगा यह लेख पढ़कर!
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AADMI NAHI USKE KARM KO JINDGI MAIN LAYA JATA HAI
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नोबेल सर तो वास्तव मे बहुत बड़ी उपहार दे कर गये ह
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