ख़ुशी की बात यह है कि मुल्ला नसरुद्दीन खुद हमें यह कहानी सुना रहे हैं:-
“एक दिन ऐसा हुआ कि किसी ने किसी से कुछ कहा, उसने किसी और से कुछ कहा और इसी कुछ-के-कुछ के चक्कर में ऐसा कुछ हो गया कि सब और यह बात फ़ैल गई कि मैं बहुत ख़ास आदमी हूँ. जब बात हद से भी ज्यादा फ़ैल गई तो मुझे पास के शहर में एक दावत में ख़ास मेहमान के तौर पर बुलाया गया.
मुझे तो दावत का न्योता पाकर बड़ी हैरत हुई. खैर, खाने-पीने के मामले में मैं कोई तकल्लुफ़ नहीं रखता इसीलिए तय समय पर मैं दावतखाने पहुँच गया. अपने रोज़मर्रा के जिस लिबास में मैं रहता हूँ, उसी लिबास को पहनकर दिनभर सड़कों की धूल फांकते हुए मैं वहां पहुंचा था. मुझे रास्ते में रूककर कहीं पर थोडा साफ़-सुथरा हो लेना चाहिए था लेकिन मैंने उसे तवज्जोह नहीं दी. जब मैं वहां पहुंचा तो दरबान ने मुझे भीतर आने से मना कर दिया.
“लेकिन मैं तो नसरुद्दीन हूँ! मैं दावत का ख़ास मेहमान हूँ!”
“वो तो मैं देख ही रहा हूँ” – दरबान हंसते हुए बोला. वह मेरी तरफ झुका और धीरे से बोला – “और मैं खलीफा हूँ.” यह सुनकर उसके बाकी दरबान दोस्त जोरों से हंस पड़े. फिर वे बोले – “दफा हो जाओ बड़े मियां, और यहाँ दोबारा मत आना!”
कुछ सोचकर मैं वहां से चल दिया. दावतखाना शहर के चौराहे पर था और उससे थोड़ी दूरी पर मेरे एक दोस्त का घर था. मैं अपने दोस्त के घर गया.
“नसरुद्दीन! तुम यहाँ!” – दोस्त ने मुझे गले से लगाया और हमने साथ बैठकर इस मुलाक़ात के लिए अल्लाह का शुक्र अदा किया. फिर मैं काम की बात पर आ गया.
“तुम्हें वो लाल कढ़ाईदार शेरवानी याद है जो तुम मुझे पिछले साल तोहफे में देना चाहते थे?” – मैंने दोस्त से पूछा.
“बेशक! वह अभी भी आलमारी में टंगी हुई तुम्हारा इंतज़ार कर रही है. तुम्हें वह चाहिए?
“हाँ, मैं तुम्हारा अहसानमंद हूँ. लेकिन क्या तुम उसे कभी मुझसे वापस मांगोगे? – मैंने पूछा.
“नहीं, मियां! जो चीज़ मैं तुम्हें तोहफे में दे रहा हूँ उसे भला मैं वापस क्यों मांगूंगा?
“शुक्रिया मेरे दोस्त” – मैं वहां कुछ देर रुका और फिर वह शेरवानी पहनकर वहां से चल दिया. शेरवानी में किया हुआ सोने का बारीक काम और शानदार कढ़ाई देखते ही बनती थी. उसके बटन हाथीदांत के थे और बैल्ट उम्दा चमड़े की. उसे पहनने के बाद मैं खानदानी आदमी लगने लगा था.
दरबानों ने मुझे देखकर सलाम किया और बाइज्ज़त से मुझे दावतखाने ले गए. दस्तरखान बिछा हुआ था और तरह-तरह के लज़ीज़ पकवान अपनी खुशबू फैला रहे थे और बड़े-बड़े ओहदेवाले लोग मेरे लिए ही खड़े हुए इंतज़ार कर रहे थे. किसी ने मुझे ख़ास मेहमान के लिए लगाई गई कुर्सी पर बैठने को कहा. लोग फुसफुसा रहे थे – “सबसे बड़े आलिम मुल्ला नसरुद्दीन यही हैं”. मैं बैठा और सारे लोग मेरे बैठने के बाद ही खाने के लिए बैठे.
वे सब मेरी और देख रहे थे कि मैं अब क्या करूँगा. खाने से पहले मुझे बेहतरीन शोरबा परोसा गया. वे सब इस इंतज़ार में थे कि मैं अपना प्याला उठाकर शोरबा चखूँ. मैं शोरबा का प्याला हाथ में लेकर खड़ा हो गया. और फिर एक रस्म के माफिक मैंने शोरबा अपनी शेरवानी पर हर तरफ उड़ेल दिया.
वे सब तो सन्न रह गए! किसी का मुंह खुला रह गया तो किसी की सांस ही थम गई. फिर वे बोले – “आपने ये क्या किया, हज़रत! आपकी तबियत तो ठीक है!?”
मैंने चुपचाप उनकी बातें सुनी. उन्होंने जब बोलना बंद कर दिया तो मैंने अपनी शेरवानी से कहा – “मेरी प्यारी शेरवानी. मुझे उम्मीद है कि तुम्हें यह लज़ीज़ शोरबा बहुत अच्छा लगा होगा. अब यह बात साबित हो गई है कि यहाँ दावत पर तुम्हें ही बुलाया गया था, मुझे नहीं.”
मैं ऐसा ही कोई दूसरा किस्सा शायद आपके ही ब्लॉग पर पढ़ चुका हूं। पक्का याद नहीं लेकिन शायद आपके ब्लॉग पर ऐसी झेन कथा है।
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हाँ सिद्धार्थ. इसी ब्लौग पर एक ज़ेन कथा की विषय-वस्तु भी ऐसी ही है. मैंने किताबों में और इन्टरनेट पर एक दूसरे से मिलते-जुलते बहुत सारे किस्से देखे हैं. एक संस्कृति और साहित्य से ये किस्से दूसरी जगहों में स्थानांतरित हो जाते हैं लेकिन उनका सार एक ही होता है.
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vaastawik kahani George Bernard Shaw ke uper hai..
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हमेशा की तरह आज भी ज्ञानगंगा मुल्ला ने ही बहाई!! आभार मुल्ला नसरुद्दीन का.!!
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बिल्कुल अलग अंदाज की मुल्ला नसीरूद्दीन की कहानियां .. इन कहानियों के लिए धन्यवाद ।
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मुल्ला जी!
आपके ज़माने का वह ख़लीफ़ा और वहां जुटे दूसरे लोग तो सुनते हैं लज्जित हो गए थे, पर अगर आप आज के भारत में होते तो आपको ही लज्जित होना पड़ता.
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सिद्धार्थ जी यहाँ खींच लाये है .वैसे मुल्ला नसीर के कई किस्से ओशो की किताबो में पढ़कर भी मजे लुटे है…
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मुल्ला नसीरुद्दीन की कहानियाँ बड़ी प्यारी लगती हैं मुझे । उन्हें यहाँ प्रस्तुत करते रहें, कृपा होगी । आभार ।
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this story is related to J B Shaw English writer not with Mulaa
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