सिकंदर का अंहकार

सिकंदर ने ईरान के राजा दारा को पराजित कर दिया और विश्वविजेता कहलाने लगा। विजय के उपरांत उसने बहुत भव्य जुलूस निकाला।मीलों दूर तक उसके राज्य के निवासी उसके स्वागत में सर झुकाकर उसका अभिवादन करने के लिए खड़े हुए थे। सिकंदर की ओर देखने का साहस मात्र किसी में कहीं था।

मार्ग के दूसरी ओर से सिकंदर ने कुछ फकीरों को सामने से आते हुए देखा। सिकंदर को लगा कि वे फ़कीर भी रूककर उसका अभिवादन करेंगे। लेकिन किसी भी फ़कीर ने तो सिकंदर की तरफ़ देखा तक नहीं।अपनी ऐसी अवमानना से सिकंदर क्रोधित हो गया। उसने अपने सैनिकों से उन फकीरों को पकड़ कर लाने के लिए कहा।

सिकंदर ने फकीरों से पूछा – “तुम लोग नहीं जानते कि मैं विश्वविजेता सिकंदर हूँ? मेरा अपमान करने का दुस्साहस तुमने कैसे किया?”

उन फकीरों में एक वृद्ध महात्मा भी था। वह बोला – “किस मिथ्या वैभव पर तुम इतना अभिमान कर रहे हो, सिकंदर? हमारे लिए तो तुम एक साधारण आदमी ही हो।”

यह सुनकर सिकंदर का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। महात्मा ने पुनः कहा – “तुम उस तृष्णा के वश में होकर यहाँ-वहां मारे-मारे फ़िर रहे हो जिसे हम वस्त्रों की तरह त्याग चुके हैं। जो अंहकार तुम्हारे सर पर सवार है वह हमारे चरणों का गुलाम है। हमारे गुलाम का भी गुलाम होकर तुम हमारी बराबरी की बात कैसे करते हो? हमारे आगे तुम्हारी कैसी प्रभुता?”

सिकंदर का अंहकार मोम की तरह पिघल गया। उस महात्मा के बोल उसे शूल की तरह चुभ गए। उसे अपनी तुच्छता का बोध हो गया। उन फकीरों की प्रभुता के आगे उसका समस्त वैभव फीका था। उसने उन सभी को आदर सहित रिहा कर दिया। (image credit)

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