एक बार चैतन्य महाप्रभु नाव में बैठकर जा रहे थे। नाव में उनके बचपन के मित्र रघुनाथ पंडित भी बैठे हुए थे। रघुनाथ संस्कृत के प्रकांड विद्वान माने जाते थे।
चैतन्य ने उन्हीं दिनों न्याय दर्शन पर एक उच्च कोटि का ग्रन्थ लिखा था। उन्होंने अपना ग्रन्थ रघुनाथ पंडित को दिखाया और उसके कुछ अंश उन्हें पढ़ कर सुनाये।
रघुनाथ पंडित कुछ देर तक ध्यानपूर्वक चैतन्य को सुनते रहे। धीरे-धीरे उनका चेहरा मुरझाने लगा और वे रो पड़े। यह देखकर चैतन्य को आश्चर्य हुआ। उन्होंने ग्रन्थ का पाठ रोककर पंडित रघुनाथ से रोने का कारण पूछा।
पंडित जी पहले तो कुछ नहीं बोले, फ़िर गहरी साँस लेकर बोले – “मित्र निमाई, मैं क्या कहूँ। मेरी जीवन भर की तपस्या निष्फल हो गई। वर्षों के घोर परिश्रम के उपरांत मैंने इसी विषय पर एक बड़ा ग्रन्थ लिखा है। मुझे लगता था कि मेरा ग्रन्थ बेजोड़ था और मुझे उससे बहुत यश मिलेगा, लेकिन तुम्हारे ग्रन्थ के अंशों को सुनाने से मेरी आशाओं पर पानी फ़िर गया। इस विषय पर तुम्हारा ग्रन्थ इतना उत्तम है कि इसके सामने मेरे ग्रन्थ को कोई पूछेगा भी नहीं। मेरा सारा किया-धरा व्यर्थ ही हो गया। भला सूर्य के सामने दीपक की क्या बिसात!”
यह सुनकर चैतन्य बड़ी सरलता से हँसते हुए बोले – “भाई रघुनाथ, दुखी क्यों होते हो? तुम्हारे ग्रन्थ का गौरव मेरे कारण कम नहीं होने पायेगा।”
और उदारमना चैतन्य ने उसी समय अपने महान ग्रन्थ को फाड़कर गंगा में बहा दिया।
और हम चैतन्य को जानते हैं। रघुनाथ पण्डित को कौन जानता है?
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चैतन्य महाप्रभु ने ऐसा करके मित्रता तो निभाई किन्तु एक अमुल्य ग्रन्थ से हमे वचित होना पडा।
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marmik katha tyag aisa bhi.
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तुलसीदास जी और हनुमानजी के बीच भी ऐसी ही कुछ कथा है।
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प्रेरक दास्तान।———–तस्लीम साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
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