आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की पत्नी न तो बहुत सुन्दर थीं न ही विद्वान्, लेकिन वह उनकी आदर्श अर्धांगिनी ज़रूर थीं। इसी नाते वह उनसे बहुत प्रेम करते थे।
वह गाँव में ही रहा करती थीं। उन्होंने दौलतपुर (रायबरेली) में परिवार द्वारा स्थापित हनुमानजी की मूर्ति के लिए एक चबूतरा बनवा दिया और जब द्विवेदीजी दौलतपुर आये तो उन्होंने प्रहसन करते हुए कहा – “लो, मैंने तुम्हारा चबूतरा बनवा दिया है”. रिवाज के मुताबिक पत्नियाँ पति का नाम नहीं लेती थीं इसीलिए उन्होंने हनुमानजी अर्थात ‘महावीर’ नाम न लेते हुए ऐसा कहा था।
द्विवेदीजी मुस्कुराते हुए बोले – “तुमने मेरा चबूतरा बनवा दिया है तो मैं तुम्हारा मंदिर बनवा दूंगा”।
सन 1912 में द्विवेदी जी की पत्नी की गंगा नदी में डूब जाने के कारण मृत्यु हो गई। द्विवेदी जी ने अपने कहे अनुसार उनका ‘स्मृति-मंदिर’ बनवाया। घर के आंगन में स्थित मंदिर में लक्ष्मी और सरस्वती की मूर्ति के बीच में उन्होंने अपनी पत्नी की संगमरमर की मूर्ति स्थापित करवाई।
मूर्ति की स्थापना का गांववालों ने बहुत विरोध किया। – “कहीं मानवी मूर्ति की भी स्थापना देवियों के साथ की जाती है? कलजुगी दुबौना सठियाय गया है! घोर कलजुग आयो है!” – ऐसी जली-कटी बातें उन्हें सुनकर उनपर लानतें भेजी गईं।
लेकिन आचार्य जी तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने भारतीय संस्कृति के आदर्श वाक्य “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, तत्र रमन्ते देवताः” को चरितार्थ किया था।
आज भी आचार्यश्री द्वारा बनवाया गया ‘स्मृति-मंदिर’ उनके गाँव में विद्यमान है।
Photo by Berlian Khatulistiwa on Unsplash
द्विवेदी जी इसी लिए महान थे कि उन के विचार और आचरण में भिन्नता न थी।
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